सुभाष कुमार गौतम/घुमारवीं
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस जिस पर आज भी बडे-बडे आर्टिकल लिखे जाते है। महिलाओं के सम्मान में बडी-बडी नेत्रियों के होर्डिंग्स लगाए जाते है। इस दिवस पर महिलाओं को बड़े-बड़े नेता याद करते है। मगर क्या वास्तव में हम महिलाओं को उनके हक और अधिकार दे पा रहे है। हिमाचल प्रदेश में आज भी महिलाओं की एक बड़ी जमात इस दिवस का महत्त्व ही नहीं समझ पाती है या यूँ कह लो परिवार व गरीबी के चलते या कामकाज की व्यस्तता के कारण उनके लिए स्वतंत्रता और महिला दिवस के कोई मायने नहीं है।
उनके लिए तो वही मसीहा है जो कुछ पल बैठकर उनका हाल पूछ ले। हम आज विश्व शक्ति होने की बात करते है, लेकिन इन महिलाओं को आपने आज तक क्या दिया है। मजबूरी और लाचारी के सिवा मात्र घर के इर्द-गिर्द ही सारे अधिकार और हक दफन हो गए। साल में एक दिन इनको सब्ज बाग दिखाने के बाद 364 दिनों तक इन्हे कोई नहीं पूछता। न ही इनके लिए कोई दया रहम है और न ही कोई स्वाभिमान की जिंदगी। इन 364 दिनों में हजारों महिलाएं दहेज की बली चढ जाती है। कई बलात्कार होते है। हजारों बेटियां गुम हो जाती है। नन्ही बेटियों के आने से पहले ही उन्हें पेट में खत्म करने की साजिशें होती है। तो इन महिलाओं के लिए महिला दिवस के क्या मायने हैं।
महिलाओं के प्रति कुछ ऐसी सोच है कि मासिक धर्म में उनसे इस तरह का भेदभाव किया जाता है कि मानो वो घर और समाज का हिस्सा ही नहीं। इन दिनों में उनके ऊपर समाज और धर्म की हर बंदिश लगा दी जाती है। हर कानून पांच-सात दिनों के लिए ठोक बजा कर लगाया जाता है। सही मायनों में अगर हम महिला दिवस चाहते है तो महिलाओं के प्रति आदर-सम्मान, उनको उनके अधिकार देना, उनके सुख-दुख में शामिल होना और उनका उत्थान करना होगा। मात्र एक दिन बधाई देने से आप इनका दुख-दर्द दूर नहीं कर सकते।
अभी तो इनको इस सत्र तक पहुंचाने के लिए साल के हर दिन महिला दिवस मनाए जाने की जरूरत है, न कि होर्डिंग्स लगाने की। महिलाओं की तडफ देखनी है तो गांव के हर हिस्से में देखो, जहां उनको सिवाए उत्पीड़न, समाज और धर्म के रस्म-रिवाजों के अलावा आज तक कुछ नहीं मिला।